Author is not an alien

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I write because we had deleted enough

Sunday, May 4, 2014

याद है तुम्हे वो परछाई

वो उठता समंदर
लुका छिपी खेलती चांदनी रात
लहरें दौड़ती थी और लौट जाती थी
उस सपने की तरह
जो आँख खुलते ही धुंधला जाता हो
बीच का तूफ़ान
यूँ मिलने की तड़प
टूट जाना तुम्हारी बाहों के किनारों में आकर
और एक शांत सी आह
फिर वही आवेग वही बैचैनी
एक आधी अंगड़ाई जैसी
याद है तुम्हें वो परछाई
लहरों के साथ उठती थी पर गिरती नहीं थी
किसी चित्रकार के पेंटब्रश से निकली
अघड़ सी एक तस्वीर
दो आकृतियाँ एक ही आकार में  
याद है तुम्हें वो परछाई
जो सिर्फ एक लम्हा नहीं था
ना ही ज़िन्दगी की दौड़ से चुरायी हुई एक ख़ुशी
वो सच था
मेरा सच
तुम्हारा सच
हमारा सच

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