Author is not an alien

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I write because we had deleted enough

Tuesday, June 3, 2014

ठूंठ होता समाज

पेड़ पर लटकी दो लाशें
उस ठूंठ की तरह
जिसे गाँव की पगडण्डी से
आते जाते जिसे सबने देखा है
पर कभी किया नहीं अफ़सोस
उसके ख़त्म होने का
सूख जाने का
बंद दरवाज़ों से उतना डर नहीं लगता
जितना की भीड़ में घूरती निगाहों से
नेता जी की “जवानी की गलतियाँ”
छूती है मुझे भीड़ भरी बस में
“डेंटिंग- पेंटिंग “ लगाकर जब निकलती हूँ बाहर
बस स्टॉप पर होती है मुलाकात
एक आम लड़की से
जिसे “निर्भय” बनने का कभी कोई शौक नहीं था
 थोड़ा आगे बढ़ी तो सुनाइ दी एक चीख
बंद दरवाज़ों से जिसे हम घर कहते हैं
सारी गलती मेरी है या फिर मेरे कपड़ों की
की आगे बढ़ रहे हाथों को “भैया” नहीं कहा
बलात्कार पर बनने वाले कॉमिक सीन्स पर
 थिएटर में बैठे मैंने भी ठहाके लगाये थे
सत्यमेव जयते के नाम पर सिर्फ उस हीरो ने नहीं
दो घड़ियाली आंसू मैंने भी बहाए थे
तो जब किसी कोने में ,किसी कसबे में एक लड़की की नहीं
इंसानियत की होती है मौत
शराफत को कुचला जाता है पैरों तले
अस्मिता का गला दिया जाता है घोंट
और सभ्यता का होता है रेप
तो मैंने भी कभी
ठूंठ होते हुए समाज को किया है अनदेखा
आते जाते जिसे सबने देखा है
पर कभी किया नहीं अफ़सोस
उसके ख़त्म होने का
सूख जाने का