Author is not an alien

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I write because we had deleted enough

Saturday, September 28, 2013

ज़िन्दगी तेरे रंग कितने

ज़िन्दगी तेरे रंग कितने
कभी ढलते सूरज की नारंगी छटा सी
कभी सरसों के खेतों में खिल्खिलाती हुई धानी चूनर सी
कभी उबलती चाय के पत्तों सा बदलता तेरा ये रंग
तो कभी गाँव की मुंडेर वाले मजार की चरमराती दीवारों सी
कभी मिटटी से सने हाथों से एक आकर लेते हुए
तो कभी तीज मानती सखियों के हाथों की मेहंदी सी
कभी नयी दुल्हन की लजाती हुई लालिमा सी
कभी एक बंजारे फ़क़ीर की दुआ सी लगती है
कभी चीखती है तू
कभी हंस पड़ती है होंठो को मुह में दबाये
कभी मचलती है तू
तो कभी ठहरी हुई सी है
जब भी देखा है तुझको करीब से
एक नए चेहरे सी नज़र आती है
कागज़ सी बनी उस नव की तरह लगती है तू मुझे
जो दूर बहुत दूर बस चली जा रही है
अपने में कई रंग समेटे ऐ ज़िन्दगीतू क्यूँ बदरंग हुई
चली जा रही है