बिहार में पहले अखिल
भारतीय हिंदी कथा समारोह का आयोजन हुआ। इससे पहले कि आप यह टोके कि हिंदी और कथा के बीच
मैंने OR क्यूँ लगाया है तो मेरा यह मानना है कि यह OR आ गया है हिंदी और साहित्य
के बीच. इस समारोह में समाज के हर हिस्से को छूती कहानियां पढ़ी गयीं ,गाँव की
पगडंडियों ,कस्बों से निकलकर अपार्टमेंट के बेडरूम तक पहुँच गयी कहानियां ,छोटे
स्केच में बड़ी तस्वीर दिखाती यह कहानियां। आज जब पुराना होने का सीधा अर्थ है आउटडेटिड हो
जाना तब भी हिंदी कहानी की कोई बात “'तेरी
कुड़माई हो गई?' (उसने कहा था , चंद्रधर शर्मा गुलेरी )के
बिना पूरी नहीं होती. कथा समारोह शुरू हुआ सरस्वती सम्मान से पुरस्कृत गोविन्द
मिश्र की कहानी “फांस” से ,कहानी बुन्देलखंडी के तड़के लगी दो चोरों की कहानी थी
जिनको शहर की हवा लग कर भी नहीं लगी थी ,गाँव एक फांस की तरह आज भी उनके ह्रदय में
था ,जो फंसा भी था और चुभता भी ,यह फांस उन लोगों के शहरातु और घाघ बनने के बीच में
अड़ा था. जब पलट कर पीछे दर्शक दीर्घा को देखा तो एक फांस मुझ में भी रह गयी जो इस
ब्लॉग का शक्ल अख्तियार कर रही।
रविन्द्र कालिया, ममता कालिया ,नासिरा शर्मा
,प्रो. असगर वजाहत ,अखिलेश जैसे दिग्गज कहानीकार और उनकी समीक्षा करते आलोचक हर
कोई दिखा यहाँ ,और दर्शक दीर्घा में बैठे थे साहित्य के विद्यार्थी और साहित्य के
प्रार्थी.सिर्फ चंद साहित्य के विद्यार्थी और
साहित्यकार बनने को इच्छुक लोग .आज हिंदी or कथा, हिंदी or कविता , हिंदी or उपन्यास
, हिंदी or बेस्टसेलर ...............एक बहुत बड़ा “OR” आ गया है हिंदी और उसके साहित्य के बीच में .यहाँ प्रश्न उदासीनता का नहीं
है ,प्रश्न ना जानने का है और इसी ना जानने की वजह से हिंदी के उस विरासत से वंचित होने की है जिस पर समय
की गर्त पड़ गयी है। सचमुच, आज हमारे
समाज में साहित्य कुल मिलाकर हाशिये पर ही है और साहित्यकार, कुल मिलाकर अपनी ही रची एक छोटी-सी दुनिया में सिमटते लग रहे
हैं ,विडम्बना यह भी है कि यह स्थिति किसी को चिंतित नहीं कर रही।
इसी कथा समारोह में एक सज्जन से बात हुई ,एक युवा आईएस अधिकारी
को उनकी साहित्यिक समझ और “फांस” कहानी पर की गयी समीक्षा से खासा प्रभावित यह
डॉक्टर साहेब कहते हैं “सर्वेश्वर दयाल सक्सेना से पारिवारिक सम्बन्ध थे हमारे
,यूँ तो मेरी शिक्षा दीक्षा हिंदी मध्यम में हुई ,और लिखता मैं भी हूँ पर हिंदी
में comfortable नहीं हूँ ,अच्छा लगा देखकर की यंग लोग भी हिंदी को पढ़ते और जानते
हैं”.मैं भाषायी डिबेट में नहीं पड़ना चाहती पर यह comfortable शब्द बहुत खुबसूरत
ढंग से हिंदी भाषा को लेकर हमारे अवचेतन में मौजूद हीनता को ढक देता है।
इंग्लैंड के महान
रचनाकार चार्ल्स डिकेन्स की जन्मस्थली है रोचेस्टर। दो सौ साल हो चुके डिकेन्स को
दिवंगत हुए। पर आज भी इस शहर के लोग अपने महान रचनाकार के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन
के लिए हर साल उनके जन्मदिन पर तीन दिन का जश्न मनाते हैं। तीन दिन का जश्न !!! और
हम एक विराट साहित्यिक सम्पदा को बस यूँ ही जाने दे देते हैं और हर साहित्यिक
समारोह जो कि एक उत्सव होना चाहिए था “just another literary meet” बनकर रह जाता
है।
भाषा सिर्फ
अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं है ,यह हमारी अस्मिता का प्रश्न भी है। ऐसा नहीं है कि पढ़ा नहीं जा रहा है
,लिटरेचर फेस्टिवल्स में पैर रखने की जगह नहीं होती ,फ्लिप्कार्ट और अमेज़न मल्टी
बिलियन डॉलर की लागत से किताबें बेच रहे हैं तो फिर हिंदी को ही एक अदद बेस्ट सेलर
क्यूँ नहीं मिल रहा ? हिंदी को भी यह समझना होगा कि बाज़ार अब नियम लिख रहा है और
इन्टरनेट है सबसे बड़ी साहित्यिक पत्रिका। भूमंडलीकरण की ट्रेन जब निकली तो हिंदी
भाषा की गाड़ी छूट गयी ,बहुत देर से हिंदी को यह समझ में आया कि अब चर्चाएं कॉफ़ी
हाउस में नहीं होती ,अब पत्रिकाएँ आपको नेशनल हीरो नहीं बनाती और अगर संचार क्रांति
को नहीं थामा तो इस कड़ी को टूटते देर नहीं लगेगी।
समारोह के समापन के
दिन रविन्द्र कालिया जी और ममता जी को दिल्ली निकलना था, उनसे मिलने को उत्सुक मैं
भागती दौड़ती वहां पहुंची ,मैंने आयोजकों में से एक जो तीन दिन से विभाग की ओर से
पूरे कार्यक्रम की कमान संभाले हुए थे ,उनसे पूछा “ममता जी एअरपोर्ट के लिया निकल
गयी हैं क्या ?”
जवाब आया “ कौन ममता
जी? “
मैं- ” ममता कालिया और
रविन्द्र कालिया। “
जवाब आया – “ यहाँ तो
बहुत सारी मैडम लोग आई हैं ,सॉरी हम नहीं पहचानते”
बस यही स्थिति हिंदी
साहित्य की नहीं होनी चाहिए . ज़रूरी है
जीवन में साहित्य के संस्कारों के लिए जगह बने। यह जगह हमें बनानी पड़ेगी।क्यूंकि हिंदी सिर्फ हमारे राष्ट्र की भाषा नहीं है ,वह एक बेमिसाल साहित्यिक सम्पदा की धनी भाषा है ,हमारे ऐतिहासिक विरासत की अनुगूंज का स्वर है और सबसे ज़रूरी यह नाम ,जाति,वर्ण,वर्ग और क्षेत्र के कहीं ऊपर हमारी पहचान है।
ममता कालिया ,रविन्द्र कालिया ,सत्यदेव त्रिपाठी और अखिलेश जी के साथ |
No comments:
Post a Comment