सांझ के दस्तक देते ही
बरबस आता है ख्याल
कि अभी रात आहट देगी
लम्बी अधूरी रात
जो इस भुलावे में कटेगी
कि आँखें बंद कर सोये थे हम
या कुछ भूले सपनों में खोये
थे हम
हर पल जो बीतता है
हँसता है मुझ पर
कि ये जो छटपटाता हुआ
इंतज़ार है
वह सुबह का है
या खुद को गुम कर लेने का
जिस गुम होने की बेचैन
कोशिश में
हम खर्च करते हैं खुद को
हर क्षण
धीरे धीरे
सिगरेट के धुंए सरीखा
जो जलता हुआ दिखता नहीं
पर राख हो रहा है
हर क्षण
धीरे धीरे
पर इस खर्च होने और करने के
बीच में भी
अनजान हम
जानते हैं कि
फिर दस्तक होगी
सिर्फ एक बार
और वही सन्नाटा
घुप काला अँधेरा
बिखर जायेगा चारों ओर
बिन पूछे
बिन चाहे
हर क्षण
धीरे धीरे
No comments:
Post a Comment