पेड़ पर लटकी दो लाशें
उस ठूंठ की तरह
जिसे गाँव की पगडण्डी से
आते जाते जिसे सबने देखा है
पर कभी किया नहीं अफ़सोस
उसके ख़त्म होने का
सूख जाने का
बंद दरवाज़ों से उतना डर
नहीं लगता
जितना की भीड़ में घूरती
निगाहों से
नेता जी की “जवानी की
गलतियाँ”
छूती है मुझे भीड़ भरी बस
में
“डेंटिंग- पेंटिंग “ लगाकर
जब निकलती हूँ बाहर
बस स्टॉप पर होती है
मुलाकात
एक आम लड़की से
जिसे “निर्भय” बनने का कभी
कोई शौक नहीं था
थोड़ा आगे बढ़ी तो सुनाइ दी एक चीख
बंद दरवाज़ों से जिसे हम घर
कहते हैं
सारी गलती मेरी है या फिर
मेरे कपड़ों की
की आगे बढ़ रहे हाथों को
“भैया” नहीं कहा
बलात्कार पर बनने वाले
कॉमिक सीन्स पर
थिएटर में बैठे मैंने भी ठहाके लगाये थे
सत्यमेव जयते के नाम पर सिर्फ उस हीरो ने नहीं
दो घड़ियाली आंसू मैंने भी बहाए थे
तो जब किसी कोने में ,किसी
कसबे में एक लड़की की नहीं
इंसानियत की होती है
मौत
शराफत को कुचला जाता
है पैरों तले
अस्मिता का गला दिया
जाता है घोंट
और सभ्यता का होता
है रेप
तो मैंने भी कभी
ठूंठ होते हुए समाज
को किया है अनदेखा
आते जाते जिसे सबने
देखा है
पर कभी किया नहीं अफ़सोस
उसके ख़त्म होने का
सूख जाने का
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