वो उठता समंदर
लुका छिपी खेलती
चांदनी रात
लहरें दौड़ती थी और
लौट जाती थी
उस सपने की तरह
जो आँख खुलते ही
धुंधला जाता हो
बीच का तूफ़ान
यूँ मिलने की तड़प
टूट जाना
तुम्हारी बाहों के किनारों में आकर
और एक शांत सी आह
फिर वही आवेग वही
बैचैनी
एक आधी अंगड़ाई
जैसी
याद है तुम्हें वो परछाई
लहरों के साथ
उठती थी पर गिरती नहीं थी
किसी चित्रकार के
पेंटब्रश से निकली
अघड़ सी एक तस्वीर
दो आकृतियाँ एक
ही आकार में
याद है तुम्हें वो परछाई
जो सिर्फ एक
लम्हा नहीं था
ना ही ज़िन्दगी की
दौड़ से चुरायी हुई एक ख़ुशी
वो सच था
मेरा सच
तुम्हारा सच
हमारा सच
No comments:
Post a Comment