ज़िन्दगी तेरे रंग कितने
कभी ढलते सूरज की नारंगी छटा सी
कभी सरसों के खेतों में खिल्खिलाती हुई धानी चूनर सी
कभी उबलती चाय के पत्तों सा बदलता तेरा ये रंग
तो कभी गाँव की मुंडेर वाले मजार की चरमराती दीवारों सी
कभी मिटटी से सने हाथों से एक आकर लेते हुए
तो कभी तीज मानती सखियों के हाथों की मेहंदी सी
कभी नयी दुल्हन की लजाती हुई लालिमा सी
कभी एक बंजारे फ़क़ीर की दुआ सी लगती है
कभी चीखती है तू
कभी हंस पड़ती है होंठो को मुह में दबाये
कभी मचलती है तू
तो कभी ठहरी हुई सी है
जब भी देखा है तुझको करीब से
एक नए चेहरे सी नज़र आती है
कागज़ सी बनी उस नव की तरह लगती है तू मुझे
जो दूर बहुत दूर बस चली जा रही है
अपने में कई रंग समेटे ऐ ज़िन्दगीतू क्यूँ बदरंग हुई
चली जा रही है
Variety is the spice of life. This uniqueness differentiates man from a machine.
ReplyDeleteCompliments on this voyage of life and.. in Hindi. Keep it up. One day you may get the enlightenment to understand the mystery that is called life.
Nice Poem, congrats :)
ReplyDeletehttp://mybloglifeshighway.blogspot.in